हाँ-हाँ, मैं दुर्योधन हूँ, मुझे धर्म का ज्ञान नहीं

हुआ पराजित कुरुक्षेत्र में, तभी प्राप्त सम्मान नहीं
हाँ-हाँ, मैं दुर्योधन हूँ, मुझे धर्म का ज्ञान नहीं

धर्म-पक्ष का नाम मिला, पांडव को सुयश तमाम मिला
कृपा कृष्ण की बनी रही, सो मनचाहा परिणाम मिला

कूटनीति ही युद्धनीति है, हर चरित्र में दाग मिला
वे करते तो दैविक कारण, मुझे दुष्ट का भाग मिला

भरी सभा में जाति पूछकर, वीर कर्ण का मान लिया
अर्जुन को श्रेष्ठ बनाने को, छल से अँगूठा दान लिया

दौड़ चले आए खेले को, और नहीं क्या कर्म-काज थे ?
आमंत्रण मेरा था, पर जुए के आदी धर्मराज थे

हुई द्रौपदी शर्मसार, वह चीर-हरण था भूल बड़ी
है मुझे ज्ञात था पाप मेरा, मेरे मति पे थी धूल पड़ी

पर जिसने दाव लगाया था, क्या उन्हें नारी का मान नहीं ?
हाँ-हाँ, मैं दुर्योधन हूँ, मुझे धर्म का ज्ञान नहीं

मैं क्यों न लेता राज-पाट, पांडव थे उसको हार गए
वह युद्ध नहीं, था खेल मात्र, पर हार गए तो हार गए

मैं दान-दक्षिणा में देता, या रखता मैं धरती तमाम
अधिकार उन्हें क्या था, जो आकर माँगे मुझसे पाँच ग्राम ?

स्वीकार मात्र ललकार किया, मैंने तो न चाहा था रण
प्रतिशोध-अग्नि में ज्वलित, कृष्ण ने ही ठाना था रण का प्रण

पर पूर्ण रूप से उद्यत रण को, क्षत्रिय-धर्म निभाने को
मैंने ही अवसर दान किया, पांडव को नाम कमाने को

यदि नहीं युद्ध में विजयी होते, पाते वे गुण-गान नहीं
हाँ-हाँ, मैं दुर्योधन हूँ, मुझे धर्म का ज्ञान नहीं

धर्म-अधर्म, पराजय-जय, यह पाठ पुनः दोहराया जाता
अभी दुराचारी कहते हैं, विजयी होता, धर्म कहाता

क्यूँ कर विजयी होता पर, मेरे ही मेरे साथ न थे
व्यथित सभी ने किया आत्मबल, पांडव मात्र आघात न थे

नहीं आक्रमण किया शिखंडी पर, प्रण से थे लस्त पितामह
वार शिखंडी के आश्रय में, हुए युद्ध में पस्त पितामह

पुत्र-मृत्यु संदेश प्राप्त कर, शस्त्र त्याग कर, शोकग्रस्त थे
युद्ध-धर्म से भ्रमित पूर्णतः, गुरु द्रोण बस मोह-सक्त थे

सबसे प्रियतम सखा कर्ण, पर उसने भी न साथ दिया
पार्थ मात्र के वध के प्रण से, मुझ पर गहरा घात किया

मुझे छोड़ मेरी सेना में, लक्ष्य किसी को ध्यान नहीं
हाँ-हाँ, मैं दुर्योधन हूँ, मुझे धर्म का ज्ञान नहीं
- #sanju05dz

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